इबादत का मज़ा लज़्ज़त
हज़रत ए बुशर बिन हारिस रहमतुल्ला अलेह फरमाते हैं, तुझे उस वक्त तक इबादत की लज़्ज़त नसीब नहीं हो सकती जब तक कि तू अपने और शहवात (नफ़सानी ख्वाहिशात) के दरमियान लोहे की दीवार काईम नहीं कर लेता।
हज़रत अबू बकर वराक़ रहमतुल्लाहि अलैह फरमाते हैं कि गलब-ए-नफ़सानियत की बुनियाद शहवात के करीब जाना है। जब यह नफ़्स की ख्वाहिश ग़ालिब होती है, तो दिल सियाह (काला) हो जाता है। जब दिल सिया हो जाता है तो सीना खुद ब खुद तंग (अंदर की तरफ सिमटना) हो जाता है। जब सीना तंग होता है तो अख़लाक़ बिगड़ जाते हैं। जब अख़लाक़ बिगड़ते हैं तो मख़लूक़ उससे बुग़ज़ दुश्मनी शुरू कर देती है। जब मख़लूक़ उससे बुग़ज़ करती है, तो वह मख़लूक़ से दुश्मनी करता है। और जब यह उन से दुश्मनी करता है तो उन पर ज़ुल्म करता है। और जब उन पर ज़ुल्म करता है तो यह शैतान मरदूद बन जाता है।
हजरत अबू अली दक़्क़ाक़ रहमतुल्लाह आले फरमाते हैं। जिस शख्स ने जवानी में अपनी नफ़सानी ख्वाहिशात पर क़ाबू पा लिया। अल्लाह ताला उसको बुढ़ापे में फरिश्ता बना देगा। (फरिश्तों जैसी अस्मत नसीब फरमाएगा।) जैसा कि हज़रत यूसुफ अलैहिस्सलाम ने तक़वा इख़तियार किया और (दुनिया की लज्जत हासिल करने में) सब्र किया क्योंकि अल्लाह ताला नेक लोगों का अजर-व-सवाब ज़ाए "बेकार" नहीं करता।
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